तुम कहो कितना चुप रहूं। चुप हूं जब से सुबह हुई है चुप हूं तब से आंख खुली है चुप हूं लेकिन शान्त नही हूं चेहरे से सब बोल रहा हूं आंखों को कैसे चुप कर दूं कैसे माथा नरम कर दूं क्यों मै खुद से ना बोलूं क्यों अपने को ना तौलूं झांक रहा हूं आपने अंदर टटोल रहा हूं मन का समंदर फिर आज मन भारी है फिर आज मेरी बारी है कुछ दिन बेगानों सा जी लुंगा धीरे धीरे हर जखम को सी लुंगा जब तक कोई ना द्वंद शुरु हो फिर से खुल कर हंस लुंगा।। 🙂
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जब मन में उठ रहा हो बवंडर जान लीजिए कि लहरों से ही बनता है समंदर